Tuesday, 5 April 2011

कविता

                               
मन की बातें

चलो प्रिये करें मन की बातें
कटते दिन नहीं कटती रातें
द्वार खड़े उसपार नदी के
खड़े-ख्रड़े क्यों हमें बंलाते।
            चलो प्रिये...

बरसों पहले जहां मिले हम
सपने ढ़ेर सजाए
सपनों में खोए अब हमतुम
करें वहीं फिर से मुलाकातें।
            चलो प्रिये...

हवा में झोंकों से बल खाते
नदी के लहरों पर लहराते
नाव सरीखे क्यों बहती हो
पल्लू को अपने पाल बनाके
    आओ प्रिये तुम मेरे तट पर
    जहां चांद हंसे तारे मुस्काते।
            चलो प्रिये....

नदी की बहती कल-कल धारा
आंखों से कल रही इशारे।
चुप बैठो ऐ, पवन निगोड़े
प्रियतम हमको पास बुलाते
आओ प्रिये करें मन की बातें।।


इबादत


मंदिरों की घंटियां या
मस्जिदे सुबहो अजान
है इबादत एक ही
हिन्दू करें या मुसलमान।

फर्क क्या पड़ता है ऐ, रब
मैं करूं या वो करें
मैं पूजूं पूनम का चंदा
वो निहारे दूज के चांद।

है कहां मतभेद जब
सूरज और चंदा एक है
है कहां तकरार जब
आबो हवा सब एक है।

क्यों घिरे खौफ ये बादल
जब इरादा नेक है
आब गंगा से जुड़ा है
और जुड़ा काबे से पानी।

है नहीं खैरात की यह जिन्दगानी
संास चलती है खुदा की मेहरबानी।
सिंध हो या हिन्द हो या पाके सरजमीं
सब खुदा के एक बन्दे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानी
राम और रहमान में ना फर्क है
धर्म और ईमान में क्या तर्क है।।




विजय बुद्धिहीन
पेशे से अधिशासी इंजीनियर, रेलवे मुगलसराय, दिल से उच्चकोटि के मंचीय कवि। दो काव्य संग्रह ‘दर्द की है गीत सीता’ और ‘भावांजलि’ शीघ्र प्रकाशाधीन।

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