Wednesday, 13 April 2011

डॉ0 अम्बेडकर

समाज के दमनात्मक संकेतों के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीकः डॉ0 अम्बेडकर


कृष्ण कुमार यादव 


-     बाल्यावस्था में कोई भी नाई आपके बाल काटने को तैयार नहीं था सो आप सहित सभी भाईयों का बाल माता जी ही काटा करती थीं।
-    बाल्यावस्था में आप जब पूर्व भुगतान करके अपने अग्रज के साथ बैलगाड़ी में बैठकर गोरेगाँव रेलवे स्टेशन जा रहे थे तो रास्ते में बातचीत द्वारा गाड़ीवान को आपकी अछूत जाति का पता चला तो वह अपवित्र होने के भय से गाड़ी से उतर गया और आपके अग्रज बैलगाड़ी चलाकर स्टेशन तक ले गए तथा गाड़ीवान पीछे-पीछे पैदल चलता रहा।
-    हाईस्कूल में आपको द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत नहीं वरन् फारसी पढ़नी पड़ी,  क्योंकि अछूत बच्चों को संस्कृत की शिक्षा देना पाप समझा जाता था।
-    अध्ययन-काल के दौरान जब शिक्षक के कहने पर आप ब्लैकबोर्ड पर लिखने के लिए बढ़े तो आपकी कक्षा के सभी बच्चे दौड़कर ब्लैकबोर्ड के पीछे रखे अपने टिफिन को लेकर बाहर भाग गए कि कहीं उनका भोजन अपवित्र न हो जाय।   
-    अध्ययन काल के दौरान प्यास लगने पर आपको नल छूने की मनाही थी। प्यास लगने पर आप अध्यापक से कहते और उनके आदेश पर चपरासी नल खोलता और तब कहीं आपको पानी पीने को मिलता।
-    बड़ौदा राज्य में सेवा-काल के दौरान चपरासी आपके हाथ में पत्रावलियाँ और फाईल सीधे न देकर फेंक जाता था।
-    महाराष्ट््र सरकार द्वारा दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दशा का अध्ययन करने हेतु गठित समिति के सदस्य रूप में दौरे के दौरान एक प्राथमिक पाठशाला के हेडमास्टर ने आपको परिसर में घुसने तक नहीं दिया और एक जगह तो तांगा चालक ने आपको तांगे पर बिठाने से इनकार कर दिया।

        आधुनिक भारत के निर्माताओं में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डॉ0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डॉ0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और  राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। 14 अप्रैल, 1891 को इन्दौर के निकट महू कस्बे में अछूत जाति माने जाने वाले महार परिवार में जन्मे अम्बेडकर रामजी अम्बेडकर की 14वीं सन्तान थे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि जिस वर्ष डॉ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ, उसी वर्ष महात्मा गाँधी वकालत पास कर लंदन से भारत वापस आए। डॉ0 अम्बेडकर के पिता रामजी अम्बेडकर सैन्य पृष्ठभूमि के थे एवं विचारों से क्रान्तिकारी थे। उनके संघर्षस्वरूप सेना में महारों के प्रवेश पर लगी पाबन्दी को हटाकर सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘महार बटालियन’ की स्थापना हुयी। 1891 में सेना से सेवानिवृत्ति पश्चात सन् 1894 में रामजी अम्बेडकर रत्नागिरी जिले में पी0 डब्लू0 डी0 विभाग में स्टोरकीपर के रूप में पुनः सेवा नियुक्त हुए, जहाँ से कालान्तर में उनका स्थानान्तरण सतारा हो गया। यहीं सतारा के सरकारी स्कूल में  अम्बेडकर की प्रारम्भिक शिक्षा सन् 1900 में आरम्भ हुई, जहाँ उनका नाम भीवा रामजी अम्बावाडेकर लिखवाया गया, पर शिक्षक द्वारा उच्चारण की दुरूहता ने अम्बावाडेकर को अम्बेडकर में तब्दील कर दिया। वस्तुतः रत्नागिरी जिले के खेड़ा तालुक में अम्बावाडे़ नामक गाँव में पैतृक स्थल होने के कारण आपके परिवार के नाम के साथ अम्बावाडेकर नाम जुड़ा था। सरकारी स्कूल में प्रवेश करते ही अम्बेडकर को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। मसलन अछूत होने के कारण कक्षा में प्रश्न पूछने की मनाही, अछूत बच्चों के सामूहिक रूप से बैठने और खेलने-कूदने पर प्रतिबन्ध, प्यास लगने पर स्वयं नल खोलकर पानी पीने की पाबन्दी इत्यादि। इन सबसे अम्बेडकर का मनोमस्तिष्क काफी आक्रोशित हुआ एवं उनके अन्तर्मन में बचपन से ही इन कुरीतियों का डटकर सामना करने की प्रवृत्ति जगी। 1904 में आपके पिताजी सेवानिवृति पश्चात बम्बई चले आए और अम्बेडकर का प्रवेश एलफिन्स्टन हाईस्कूल में करा दिया एवं अगले वर्ष 1905 में मात्र 14 वर्ष की उम्र में 9 वर्ष की अबोध कन्या रामाबाई के साथ इनका विवाह कर दिया।  यद्यपि शहरी माहौल होने के कारण यहाँ पर जाति-पात की भावना उतनी कठोर नहीं थी पर फिर भी इससे पूर्णतया छुटकारा नहीं मिला। उपरोक्त वर्णित ब्लैकबोर्ड वाली घटना यहीं पर घटित हुई थी। पर इससे भी आप विचलित नहीं हुये और 1907 में प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल परीक्षा उतीर्ण की। निश्चिततः एक अछूत विद्यार्थी की यह उपलब्धि काफी मायने रखती थी सो सत्यशोधक समाज ने अम्बेडकर को सम्मानित करने का फैसला किया और पुरस्कारस्वरूप  बुद्ध के जीवन पर आधारित एक किताब भेंट की।  यहीं से अम्बेडकर के मन में बौद्ध धर्म के प्रति खिंचाव पैदा होना आरम्भ हो गया। अम्बेेडकर की प्रतिभा से प्रभावित होकर बड़ौदा के महाराजा शिवाजी राव ने उन्हें छात्रवृत्ति के रूप में 25 रूपये मासिक देना आरम्भ कर दिया। बी0 ए0 करने के पश्चात अम्बेडकर बड़ौदा राज्य में ही नौकरी करने लगे। इस बीच बड़ौदा के महाराजा द्वारा प्राप्त छात्रवृत्ति की सहायता से उन्होंने 1913 में अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश ले लिया। अध्ययन के दौरान ही अमेरिका में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे लाला लाजपत राय से भी आपकी मुलाकात हुयी एवम् इन दोनों महानुभावों में अक्सर समाज सुधार आन्दोलनों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर चर्चा होती। इस बीच वर्ष 1916 में अम्बेडकर ने ‘ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त का विकास’ विषय पर अपनी पी0 एच0 डी0 थीसिस प्रस्तुत की और उसी वर्ष ‘लन्दन स्कूल ऑफ इकानामिक्स’ में शिक्षा ग्रहण करने हेतु वे अमेरिका से लन्दन चले आए। इससे पहले कि वे अर्थशास्त्र में अपना अध्ययन पूरा करते उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और मजबूरन उन्हें फिर से बड़ौदा के महाराज के यहाँ उनके मिलिट््री सेक्रेटरी के रूप में नौकरी शुरू करनी पड़ी।  यहाँ भी जातिगत विषमता ने उनका पीछा न छोड़ा और अन्त तक वे एक पारसी होटल में किराये पर टिके रहे। अन्ततः जलालत झेलने की बजाय अपने पद से त्यागपत्र देकर वे पुनः बम्बई चले आए।
        जब अम्बेडकर बम्बई आए तो वहाँ समाज सुधार के नाम पर दलित आन्दोलन तीव्रता पकड़ रहा था। 1917 में दलितों के दो सम्मेलन व पुनश्च मार्च 1918 में बडौदा के महाराज शिवाजीराव की अध्यक्षता में बम्बई में ‘अखिल भारतीय दलित सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। इन सम्मेलनों में छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका हक दिलाने हेतु लम्बे-चौड़े वादे किए गए पर अम्बेडकर को इनका नेतृत्व कर रहे द्विज नेताओं पर भरोसा नहीं था। वे अछूतों के लिये पृथक निर्वाचन के पक्ष में थे। बम्बई प्रवास के दौरान ही आजीविका खातिर आपने 1918 में ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ के प्रोफेसर रूप में पुनः नौकरी आरम्भ कर दी। प्रतिभावान और मेधावी होने के चलते उनकी कक्षा लोकप्रिय तो अवश्य थी पर द्विज वर्ग के विद्यार्थी उन्हें उचित सम्मान नहीं देते थे एवम् अन्य साथी प्रोफेसर भी छुआछूत की भावना से देखते थे, सो पुनः आपने जलालत झेलने की बजाय त्यागपत्र देना बेहतर समझा। अब अम्बेडकर की अन्तरात्मा जाग चुकी थी पर वे हर अछूत की सोई हुई आत्मा को जगाना चाहते थे। ऐसे में दलित भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये 1920 में ‘मूक नायक’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया। इससे पूर्व 1919 में साइमन कमीशन के सम्मुख आप दलित वर्ग के प्रतिनिधि रूप में भी गए थे जहाँ आपने दलितों के लिये जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधि सभाओं में सीटें आरक्षित करने और पृथक निर्वाचन के पक्ष में जोरदार तर्क दिए। उन्होंने स्पष्टतः कहा कि- ‘‘होमरूल केवल ब्राह्मणों का ही नहीं, महारों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वशासन हो जाने पर भी सवर्णांे की गुलामी से यदि दलितों को मुक्ति नहीं मिली तो ऐसे होमरूल या स्वशासन का कोई अर्थ नहीं। होमरूल से पहले सामाजिक एकता कायम करने की जरूरत है।’’ डॉ0 अम्बेडकर के तर्कांे को साइमन आयोग ने स्वीकारा और अंततः मुस्लिमों के लिये पृथक निर्वाचन के साथ-साथ दलितों के दो-दो प्रतिनिनिधियों को भी धारा सभाओं और केन्द्रीय सभा में मनोनीत करने की बात स्वीकार कर ली। निश्चिततः डॉ0 अम्बेडकर की यह प्रथम राजनैतिक विजय थी। इस बीच कोल्हापुर में साहू महाराज की अध्यक्षता में आयोजित दलित सम्मेलन में भी अम्बेडकर ने भागीदारी की पर उनकी राय मेें ज्ञान और शक्ति के बिना  दलित और अछूत कोई प्रगति नहीं कर सकते। सितम्बर 1920 में कोल्हापुर के महाराज साहूजी छत्रपति द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से आपने पुनः लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में प्रवेश ले लिया और  साथ-ही-साथ वकालत की पढ़ाई भी करने लगे। इस बीच अम्बेडकर ने विश्व के तीन प्रतिष्ठित अमरीकी, अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त की और एक साथ ही इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून और संविधान के प्रख्यात विद्वान बन गए। कहा जाता है कि अम्बेडकर को अध्ययन में इतनी गहरी रूचि थी कि 1930 के गोलमेज सम्मेलन के दौरान वे 32 बक्से किताबें खरीदकर भारत आए। याद कीजिए राहुल सांकृत्यायन का तिब्बत से खच्चरों पर लादकर बौद्ध साहित्य का लाना।



        डॉ0 अम्बेडकर पर बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबाफुले की अमिट छाप पड़ी थी। बुद्ध से उन्होंने शारीरिक व मानसिक शान्ति का पाठ लिया, कबीर से भक्ति मार्ग तो ज्योतिबाफुले से अथक संघर्ष की प्रेरणा। यही नहीं अमेरिका और लन्दन में अध्ययन के दौरान वहाँ के समाज, परिवेश व संविधान का भी आपने गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय परिवेश में उतारने की कल्पना की। अमेरिका के 14वंे संविधान संशोधन जिसके द्वारा काले नीग्रांे को स्वाधीनता के अधिकार प्राप्त हुए, से वे काफी प्रभावित थे और इसी प्रकार दलितों व अछूतों को भी भारत में अधिकार दिलाना चाहते थे। 20 मार्च 1927 को महाड़ में आपने दलितों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया और  उनकी अन्तरात्मा को झकझोरते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वचेतना से स्वाभिमान  व सम्मान पैदा करने की बात कही। उन्होंने दलितों का आह्यन किया कि वे सरकारी नौकरियों में बढ़-चढ़कर भाग लें वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा कि- ‘‘अपना घर-बार त्यागो, जंगलों की तरफ भागो और जंगलों पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाकर अपना अधिकार जमाओ।’’ अम्बेडकर के इस भाषण पश्चात सदियों से दमित दलित चेतना ने हुंकार भरी और वे सार्वजनिक स्थलों पर अपना अधिकार जताने निकल पड़े पर साम्प्रदायिक तत्वों को ये दलित चेतना अच्छी न लगी और उन्होंने वहाँ स्थित वीरेश्वर मंदिर पर अछूतों के कब्जे की बात फैला दी। नतीजन, इस घटना ने चिंगारी की भांति फैलकर पूरे महाराष्ट््र में उग्र रूप धारण कर लिया और लोगों ने पुलिस के सामने दलितों पर जमकर हमले किए और उनकी जमीन इत्यादि छीनने लगे। यहाँ तक कि स्वयं अम्बेडकर ने एक पुलिस स्टेशन में शरण ली। इस घटना के पश्चात अम्बेडकर ने कठोर रूप अख्तियार करते हुए सत्याग्रह की धमकी दी और दलितों से अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु मर मिटने की अपील की। अन्ततः मजबूर होकर महाराष्ट््र में दलितों के सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश में बाधा डालने वालों को दण्डित करने का कानून बना। इस आन्दोलन से रातोंरात डॉ0 अम्बेडकर दलितों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आए।

            डॉ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और  डॉ0 अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डॉ0 अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में  शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डॉ0 अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी। डॉ0 अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण  सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैरबराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यांे का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो र्गइं। इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हैं बल्कि भारत की राष्ट््रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’ डॉ0 अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा? क्या मैला नहीं उठायेगा? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट््र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है। यह सोचना फरेब है कि ओस की बूँदांे से किसी की प्यास बुझ सकती है।’’ अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके।

           डॉ0 अम्बेडकर अपनी योग्यता की बदौलत सन् 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी बने एवम् कालान्तर में संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रूप में आपने संविधान का पूरा खाका खींचा और उसमें समाज के दलितांे व पिछड़े वर्गांे की बेहतरी के लिए भी संवैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किए। स्वतंत्रता पश्चात डॉ0 अम्बेडकर भारत के प्रथम कानून मंत्री भी बने पर महिलाओं को सम्पति में बराबर का हिस्सा देने के लिये उनके द्वारा संसद में पेश किया गया ‘हिन्दू कोड बिल’ निरस्त हो जाने से वे काफी आहत हुए और 10 अक्टूबर 1951 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र देते समय उन्हांेनेे कहा था कि- ‘‘भारत के प्रधानमंत्री द्वारा मुझे बुलाकर मंत्री पद देने की पेशकश और कानून मंत्री बनाने का निमन्त्रण आश्चर्यजनक था, क्योंकि मै तो विपक्ष में था। मुझे खुद ही संदेह था कि अब तक मैं जिनके विरोध में था, उनके साथ कैसे काम कर सकूगाँ? मुझे अपनी योग्यता के बारे में भी संदेह था कि क्या मैं अपने पूर्ववर्ती कानून मंत्रियों जैसा हूँ? फिर भी मैंने अपने संदेह को ताक पर रखकर प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लिया कि देश के नवनिर्माण हेतु मुझमें जितनी भी क्षमता है उसके अनुरूप असहयोग करना चाहिए।’’ 1954 में राज्य सभा में अनुसूचित जाति व जनजाति आयुक्त की रिपोर्ट पर उन्होंने कहा था कि- ‘‘आप पुनः नमक के ऊपर टैक्स लगा दें। यह टैक्स बहुत मामूली था। उस समय जब इसे समाप्त किया गया तो इस मद से 10 करोड़ रूपये आते थे। अब यह 20 करोड़ पर पहुँच सकता है। चूँकि गाँधी जी के नेतृत्व में इस टैक्स के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी इसलिए उनकी याद में इसे समाप्त किया गया। मैं उनकी दिल से इज्जत करता हूँ। इसलिए मेरा सुझाव है कि इस टैक्स को फिर से लगावें और उनकी याद में उसी पैसे से गाँधी ट््रस्ट फण्ड बनाकर दलितों के उद्धार और पुनर्वास पर इसे खर्च करें।’’ डॉ0 अम्बेडकर दूरदृष्टा और विचारों से क्रांतिकारी थे तथा सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पश्चात वे बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए। एक ऐसा धर्म जो मानव को मानव के रूप में देखता था, किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित था न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अंधविश्वास पर। अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। 1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योेंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। इस धर्म से खराब दुनिया में कोई धर्म नहीं है इसलिए इसे त्याग दो। सभी धर्मों में लोग अच्छी तरह रहते हैं पर इस धर्म में अछूत समाज से बाहर हैं। स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का एक रास्ता है धर्म परिवर्तन। यह सम्मेलन पूरे देश को बतायेगा कि महार जाति के लोग धर्म परिवर्तन के लिये तैयार हैं। महार को चाहिए कि हिन्दू त्यौहारों को मनाना बन्द करें, देवी देवताओं की पूजा बन्द करें, मंदिर में भी न जायें और जहाँ सम्मान न हो उस धर्म को सदा के लिए छोड़ दें।’’ अम्बेडकर की इस घोषणा पश्चात ईसाई मिशनरियों ने उन्हें अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश की और इस्लाम अपनाने के लिये भी उनके पास प्रस्ताव आये। कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिये उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था पर अम्बेडकर ने उसे वापस कर दिया। वस्तुतः अम्बेडकर एक ऐसा धर्म चाहते थे, जिसकी जड़ें भारत में हों। अन्ततः 24 मई 1956 को बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती पर अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने की घोषणा कर दी और अक्टूबर 1956 में दशहरा के दिन नागपुर में हजारों शिष्यों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भगवान बुद्ध के एक उपदेश का हवाला भी दिया- ‘‘हे भिक्षुओं! आप लोग कई देशों और जातियों से आये हुए हैं। आपके देश-प्रदेश में अनेक नदियाँ बहती हैं और उनका पृथक अस्तित्व दिखाई देता है। जब ये सागर में मिलती हैं, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती हैं और समुद्र में समा जाती हैं। बौद्ध संघ भी समुद्र की ही भांति है। इस संघ में सभी एक हैं और सभी बराबर हैं। समुद्र में गंगा या यमुना के मिल जाने पर उसके पानी को अलग पहचानना कठिन है। इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आने पर सभी एक हैं, सभी समान हैं।’’ बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनांे पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डॉ0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए। उनके निधन पर  तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘‘डॉ0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’

Tuesday, 5 April 2011

सन्देश






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कविता

                               
मन की बातें

चलो प्रिये करें मन की बातें
कटते दिन नहीं कटती रातें
द्वार खड़े उसपार नदी के
खड़े-ख्रड़े क्यों हमें बंलाते।
            चलो प्रिये...

बरसों पहले जहां मिले हम
सपने ढ़ेर सजाए
सपनों में खोए अब हमतुम
करें वहीं फिर से मुलाकातें।
            चलो प्रिये...

हवा में झोंकों से बल खाते
नदी के लहरों पर लहराते
नाव सरीखे क्यों बहती हो
पल्लू को अपने पाल बनाके
    आओ प्रिये तुम मेरे तट पर
    जहां चांद हंसे तारे मुस्काते।
            चलो प्रिये....

नदी की बहती कल-कल धारा
आंखों से कल रही इशारे।
चुप बैठो ऐ, पवन निगोड़े
प्रियतम हमको पास बुलाते
आओ प्रिये करें मन की बातें।।


इबादत


मंदिरों की घंटियां या
मस्जिदे सुबहो अजान
है इबादत एक ही
हिन्दू करें या मुसलमान।

फर्क क्या पड़ता है ऐ, रब
मैं करूं या वो करें
मैं पूजूं पूनम का चंदा
वो निहारे दूज के चांद।

है कहां मतभेद जब
सूरज और चंदा एक है
है कहां तकरार जब
आबो हवा सब एक है।

क्यों घिरे खौफ ये बादल
जब इरादा नेक है
आब गंगा से जुड़ा है
और जुड़ा काबे से पानी।

है नहीं खैरात की यह जिन्दगानी
संास चलती है खुदा की मेहरबानी।
सिंध हो या हिन्द हो या पाके सरजमीं
सब खुदा के एक बन्दे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानी
राम और रहमान में ना फर्क है
धर्म और ईमान में क्या तर्क है।।




विजय बुद्धिहीन
पेशे से अधिशासी इंजीनियर, रेलवे मुगलसराय, दिल से उच्चकोटि के मंचीय कवि। दो काव्य संग्रह ‘दर्द की है गीत सीता’ और ‘भावांजलि’ शीघ्र प्रकाशाधीन।

Monday, 7 March 2011

mahila diwas par khaas

21वीं सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार
  • कृष्ण कुमार यादव
(निदेशक डाक सेवाएं, भारतीय डाक सेवा)

          भारत में नारी को पूजनीय माना गया है। वैदिक काल से ही नारी विभिन्न रूपों में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करती आ रही है। नारी की सुकोमलता, सौंदर्य, लज्जा व स्नेहिल स्वभाव सदैव से इसके आभूषण रहे हैं पर दुर्भाग्यवश इन्हीं गुणों के कारण उसके साथ बार-बार छल भी हुआ है। समाज की सामन्तवादी सोच ने नारी की आन्तरिकता की उपेक्षा कर उसकी भौतिक काया एवं बाहरी रूप-रंग को ही आधार बनाया । आज जहाँ पुरूष की शुचिता उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर मापी जाती है, वहीं नारी की शुचिता अंग विशेष के आधार पर मापी जाती है।

    प्राचीन काल से ही जहाँ नारी को एक तरफ समाज में प्रतिष्ठा मिली, वहीं दूसरी तरफ वह बर्बरता का शिकार हुयी। तुलसीदास ने तो नारी को ताड़ना का अधिकारी बताकर पशु के समकक्ष खड़ा कर दिया- ‘‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने पत्नी सीता के अग्निपरीक्षा में खरे उतरने के बाद भी एक धोबी के कहने पर धोखे से अपनी पत्नी को घर से निर्वासित कर दिया । सती-प्रथा की आड़ में तमाम नवयुवतियों को मृत पति के साथ चिता में जिन्दा भस्म कर दिया गया । तमाम राजाओं की हैवानियत तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक वे पराजित राजाओं की रानियों को अपने हरम का हिस्सा नहीं बना लेते थे। जौहर-प्रथा इसी का नतीजा थी । यह सब तो बीते युग की बातें हैं, वर्तमान दौर में भी इस तरह की व्यथायें देखी और सुनी जा सकती हैं।  बिहार से मुसहर जाति की एक सांसद को टी0 टी0 ने ट्रेन के वातानुकूलित कोच से परिचय देने के बावजूद इसलिये बाहर निकाल दिया क्योंकि वह वेश-भूषा से वातानुकूलित कोच में बैठने लायक नहीं लगती थीं। याद कीजिये दक्षिण अफ्रीका  में अंग्रेजों द्वारा गाँधी जी को टेªन के प्रथम श्रेणी डिब्बे से बाहर निकालने का दृश्य। राजस्थान में ‘साथिन’ नामक संस्था से जुड़ी भँवरी  देवी ने जन-जागरूकता का बीड़ा उठाया तो हश्र्र बलात्कार के रूप में सामने आया। देवदासी प्रथा के नाम पर कुंवारी  कन्या  को भगवान के दरबार में सौंप देना और तत्पश्चात मन्दिर के पुरोहित द्वारा कन्या के साथ संभोग करना जैसी घटनायें भी  कुछेक देशों में देखी जा सकती हैं। पंचायत संस्थाओं में निम्न वर्ग की महिलाओं को आरक्षण मिलने के साथ ही देश के कई क्षेत्रों में निर्वाचित सरपंचों के साथ बद्सलूकी की घटनायें अखबारों की सुर्खियाँ बनी । मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में हुआ ‘सती काण्ड’ अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है । इक्कीसवीं सदी की ओर उन्मुख राष्ट्र की गर्वोक्ति घोषणाओं के साथ ही अखबारों में नित्य नाबालिगों  के साथ दुष्कर्म की घटनायें छपती रहती हैं। मुम्बई की लोकल टेªन में एक वहशी द्वारा पाँच-छः यात्रियों के सामने एक बालिका से बलात्कार करना और उन यात्रियों का चुप-चाप तमाशा देखना क्या इंगित करता है ? सभ्य समाज का दर्जा पा चुकने के बाद भी घर की महिलाओं से बलात्कार कर बदला चुकाने का पाशविक अंदाज नहीं बदला है। विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र एवम् लोकतन्त्र व सभ्यता के स्वयंभू रक्षक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अपने कार्यालय की एक अदना सी महिला कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ अंतरंग क्षणों का लोभ नहीं छोड़ सके। एक सभ्य समाज की ये असभ्य घटनायें हमें कहाँ लेे जा रही हैं ?

            आधुनिक समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। आाधुनिकता के नाम पर सफलता हेतु शार्टकट रास्ते अपनाना, स्वतन्त्रता के नाम पर उन्मुक्तता का पक्ष- पोषण करना इसकी विशेषतायें बन चुकी हैं । ‘आई डोन्ट केयर’ की संस्कृति फलने-फूलने लगी है। शारीरिक वर्जनायें खत्म होती जा रही हैं । गली- मुहल्लों में तेजी से बढ़ता सौन्दर्य का बाजार, ब्यूटी-क्वीन प्रतियोगिताओं की भरमार, कुछ ही समय में सब कुछ पा लाने की महत्वाकांक्षा, विज्ञापन के नाम पर नारी मॉंडलों के शरीर का प्रदर्शन, फिल्मों और धारावाहिकों में रिश्तों के तेजी से टूटने का प्रचलन एवम् कम होते कपड़े किस आाधुनिकता व स्वतंत्रता के परिचायक हैं?  क्या भारतीय संस्कृति अपनी मूल आस्थाओं को छोड़कर उस पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उन्मुख हो रही है, जहाँ बात-बात में नारी स्वतन्त्रता के नाम पर छाती उधाड़ देना फैशन बन गया है?

        इस संक्रमण काल के बीच 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में एक ऐसा वर्ग उभरा जो अपनी मुक्ति शारीरिक वर्जनाओं को तोड़ने में नहीं अपितु खोखली सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने में देखता है। इनकी शक्लो-सूरत ओर हैसियत पर मत जाईये। ये न तो फेमिनिस्ट के रूप में नारी आन्दोलनों से जुड़ी हैं और न पश्चिमी देशों की उन नारियों की तरह है जो स्वतंत्रता के नाम पर अपनी छाती उघाड़कर प्रदर्शन करती हैं। न ही इनके साथ किसी बड़े घराने या कॉरपोरेट जगत या राजनैतिक दल का नाम जुड़ा हुआ है और न ही ये कोई बड़े-बड़े दावे करती हैं। ये वो महिलायें हैं  जो हमारे पास-पड़ोस की और हमारे बीच की हैं, जिनसे हम न जाने कितने बार रूबरू हुए होंगे पर हमंे उनकी खासियत का पता ही नहीं। एक लम्बे समय से धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के नाम पर इन्हें यही बताया जाता रहा कि फला काम तुम्हारे लिए वर्जित है और यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करोगी तो तुम्हारे ऊपर अपशकुन व ईश्वरीय प्रकोप का खतरा मंडरायेगा। पर ये औरों से अलग हैं क्योंकि वर्जनाओं को तोड़कर एक अलग लीक बनाना ही इनकी खासियत है। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुुक्तता में दिखा। नतीजन, गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन, मॉडल बनने की होड,़ फिल्मों में काम पाने हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों की बढती भीड़ .... पर समाज का यह वर्ग ऐसा है जो अभी भी सिर से पांव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।

    कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस की लड़कियों ने तमाम रूढ़िगत वर्जनाओं और परम्पराओं को बहुत पीछे धकेल कर कुछ नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। कर्मकाण्ड का सबसे प्रमुख तत्व पुरोहिती है और पांडित्य में बनारस का कोई सानी नहीं। प्राचीन काल से ही यहाँ के पंडितों ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई है। प्राचीनकाल में जहाँ लोमशा एवं लोपामुद्रा आदि नारियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, शाश्वती, घोषा, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरूषों को कायल बना रखा था, उसी परम्परा मंे अब पुरूष पुरोहितों की परम्परा को बनारस की लड़कियों ने तोड़ दिया है। तुलसीपुर स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण कई लड़कियाँ अब लोगों के विवाह करवा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। महाविद्यालय की आचार्या नंदिता शास्त्री बड़े गर्व से बताती हैं कि विवाह कराने के लिये उनकी छात्राओं को बनारस ही नहीं वरन् दूर-दूर से लोग आमंत्रित कर रहे हैं। हैदराबाद में बसी यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी को वैदिक रीति से विवाह कराने के लिए अमेरिका तक से आमंत्रण आ चुके हैं। जब इन छात्राओं ने आरम्भ में यह कार्य आरम्भ किया तो इनका विरोध करने के लिए परम्परागत पंडितांे ने वर व कन्या पक्ष को शास्त्रों से उद्धरण देकर काफी भड़काया पर अब वही पंडित इन लड़कियों का लोहा मानने लगे हैं। कारण- मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, उसकी सम्यक व्याख्या और वैवाहिक संस्कार की सभी रस्मों का पालन करवाने में लड़कियाँ परम्परागत पंडितों से कहीं आगे हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे पंडित विवाहों में शुद्ध मंत्र का उच्चारण तक नहीं कर पाते। अब ये छात्रायंे विवाह ही नहीं शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हैं। ऐसा नहीं है कि यह क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ बनारस तक ही सीमित है वरन् देश के अन्य भागों में भी इस बदलाव को महसूस किया जाने लगा है। औद्योगिक महानगर कानपुर में कानपुर विद्या मंदिर डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं। उन्होंने जब छात्राओं को सार्वजनिक रूप से वेद पाठ आरम्भ कराया तो व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा। यहाँ तक कि एक शंकराचार्य ने इसे वेद विरूद्ध तक घोषित कर दिया। पर आशारानी ने हार नहीं मानी और नतीजन आज उनकी तमाम छात्रायें कर्मकाण्ड कराने लगी हैं। हरिद्वार में कनखल स्थिति माँ योग शक्ति धाम की अधिष्ठाता माँ योग शक्ति ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल की साध्वी माँ ज्योतिषानन्दन को जगद्गुरू शंकराचार्य के समकक्ष पार्वत्याचार्य  की उपाधि से अलंकृत किया तो गुस्साये साधु सन्तों ने किसी महिला को यह उपाधि देने के विरोध में जमकर हंगामा किया। 

           सिर्फ घरेलू कर्मकाण्डों तक ही क्यों, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई। इस दिशा में सुनीति गाडगिल ने अलख जगाई जिन्होंने विवाह, पूजा, यज्ञ आदि करवाने में ही भूमिका नहीं निभाई वरन् श्राद्ध कर्म भी करवाकर मिसाल कायम की। बनारस के ही पाण्डेयपुर क्षेत्र की निवासी तनू उर्फ वन्दना जायसवाल, मंडुवाडीह की लक्ष्मीणा देवी, नगर निगम के सफाईकर्मी रहे गोलगड्ढा निवासी मुन्ना की विधवा बीदा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डॉ0 अलका मुखर्जी ने परिवार में किसी अन्य पुरूष सदस्य के न रहने पर अपनी माँ, पिता और पति का अंतिम संस्कार धार्मिक क्रियाओं के बीच विधिवत सम्पन्न किया। वन्दना जायसवाल ने घंट इत्यादि बाँधकर नित्य घाट पर अपनी माँ का तर्पण भी किया। अब तो इस सामाजिक बदलाव की बयार का असर देश के अन्य भागों में भी दिखाई पड़ने लगा। तभी तो कानपुर की डॉ0 आशारानी राय महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने से नहीं हिचकतीं। अपने पिता और श्वसुर का अंतिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने ही सम्पन्न किया। यही नहीं कुछेक समय पहले तक प्रयाग के रसूलाबाद घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक 72 वर्षीया विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया तथा अंतिम संस्कार के लिये चिता को मुखाग्नि दी और पिण्डदान किया। परिवार में बेटों के न होने पर लोगों ने बड़े दामाद से मुखाग्नि दिलवाने का प्रयास किया पर सातों बेटियों ने कहा कि- ‘‘उनकी माँ ने बेटा न पैदा होने पर बेटियों को ही बेटों की तरह पाला तथा किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी।’’ हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमी देवी ने तो अपने पति की अर्थी को बेटों को कन्धा तक नहीं लगाने दिया और अर्थी को कंधा देने की जिद करने पर उन्हें धक्के मारकर घर से निकाल दिया। उसने कहा कि मेरे पति के जिन्दा होने पर इन बेटों ने कभी हमारी सेवा नहीं की और न ही रोजमर्रा के खर्च के लिये कोई इन्तजाम किया और ऐसे में पति का निर्देश था कि- ‘‘इन अवारा कलयुगी बेटों को मेरी अर्थी में कंधा न लगाने दिया जाये।’’ अंततः अर्थी को दोनों बहुओं व पड़ोस की दो अन्य औरतों ने कंधा दिया और मुखाग्नि उसके चार पोतों ने दी। इसी प्रकार गोरखपुर स्थित सहजनवां के दीनदयाल उपाध्याय महिला विद्यालय में स्नातक की विकलांग छात्रा बुधवन्त सिंह ने अपने पिता की अर्थी को अपने हाथों से सजाया और कंधा देने वालों के अभाव में ठेले पर रखकर श्मशान घाट ले जाकर विधिवत मुखाग्नि देकर अपना कर्तव्य निभाया। बाँदा में निर्मला गर्ग नामक महिला ने पुत्र के होते हुए भी अपने पति की चिता को आग दी तो शाँहजहापुर में पेशे से इंजीनियर शिप्रा नामक लड़की ने सगाई के अगले ही दिन दिवंगत हुए अपने पिता की अर्थी को न केवल मेंहदी रचे हाथों से कांधों पर धरा बल्कि उन्हें मुखाग्नि देकर रूढ़ियों को भी ललकारा। धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो अंतिम संस्कार कोई भी सम्पन्न करा सकता है किन्तु अदृश्य की उत्पत्ति का अधिकार शास्त्रों में पुत्र और पौत्र के अलावा राजा व ब्राह्मण को ही होता है। भले ही धर्म के पुरोधा मानंे कि शवदाह के बाद का काम ब्राह्मण ही करेगा वरना आत्मा भटकेगी और अगले जन्म में शरीर का अंग-प्रत्यंग भी ठीक-ठाक नहीं होगा पर इन महिलाओं की मानें तो यह पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच है जो सारे पुण्य अकेले ही लूटना चाहता है। हिमाचल प्रदेश की घटना समाज के सामने यह भी सवाल खड़ा करती है कि अपने माँ-बाप की देखरेख न करने वाले बेटों को धार्मिक मान्यताओं के नाम पर माँ-बाप की अर्थी में कंधा देने का क्या नैतिक अधिकार है? निश्चिततः उस निरक्षर दलित महिला ने इसी बहाने माँ-बाप के प्रति संतानों को दायित्व बोध का पाठ भी पढ़ाया। 

           याद कीजिये ‘बीबी हो तो ऐसी’ फिल्म में नायिका रेखा का घोड़ी पर सवार होकर दूल्हे के द्वार बारात ले जाना। इस फिल्मी कथानक को भी लड़कियों ने हकीकत में बदल दिया। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई यानी भोलेनाथ की नगरी में गंगा एक बार फिर उल्टी बही। इस सब के पीछे कश्यप फिल्म एण्ड टेलीविजन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक डा0 डी0एल0कश्यप की प्रमुख भूमिका रही, जिन्होंने अपने तीन बेटों और दो बेटियों के हाथ बनारस के घमहापुर गाँव में एक साथ एक ही मण्डप में पीले किये। अभी तक दहेजलोलुप दूल्हों को लड़कियों द्वारा विवाह मण्डप से बाहर निकालने या शराबी दूल्हे के साथ विवाह करने से इन्कार करने जैसे उदाहरण ही सामने आये हैं पर परम्पराओं को दरकिनार करते हुए डा0 कश्यप के तीनों बेटों से विवाह करने उनकी दुल्हनें घोड़ी पर सवार होकर मय बारात उनके दरवाजे आयीं जहाँ दूल्हे के पिता ने बहुओं की आगवानी की तथा उन्हें घोड़ी से उतारकर उनका पाँव पूजा। जबकि परम्परा है कि लड़की का पिता दूल्हे का पाँव पूजता है। प्रतीकात्मक द्वारपूजा के बाद दुल्हनों को मंच पर महाराजा कुर्सी पर बिठाया गया और फिर दूल्हे राजा मंच पर आये। लड़की वालों की ओर से निभाये जाने वाले सभी रस्मोरिवाज लड़कों के पिता ने पूरे किये। इस विवाह में न तो कोई मंत्र पढ़ा गया और न ही सात फेरों के साथ कसमें खायी गयीं, अपितु सिर्फ जयमाल व सिन्दूरदान हुआ। इसी प्रकार जयपुर में कानून की छात्रा रही दो जुड़वा बहनें अपनी शादी के अवसर पर निकाली जानेवाली ‘बिन्दौरी’ में घोड़ी पर सवार होकर निकलीं। उनका मानना था कि- ‘‘यह क्रांतिकारी कदम दर्शाता है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं है।’’ उ0प्र0 के जौनपुर में जब शादी पश्चात एक लम्बे समय तक पति अपनी विवाहिता को लेने नहीं पहुँचे तो कुछेक लड़कियाँ खुद ही बारात (गौना) लेकर पतियों के दरवाजे पहुँच गयीं। यही नहीं आधी आबादी की प्रतीक नारियों ने अब अनचाहे दूल्हों को दरवाजे से लौटाना भी आरम्भ कर दिया है। गाय की बछिया समझकर किसी के भी हाथ में पगहा पकड़ा देने वाले माता-पिता की पगड़ी की लाज की खातिर, सामाजिक संस्कारों के बोझ तले दबकर अपना भविष्य बर्बाद करने की बजाय तमाम लड़कियों ने दहेज लोभी, शराबी, उम्रदराज इत्यादि जैसे दूल्हों को निडरता से दरवाजे से लौटाने में संकोच नहीं किया। 


        सामान्यतः शादी योग्य लड़कियांे के लिये लड़के ढूँढ़ने का काम पुरूष वर्ग का माना जाता रहा है पर लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाली नीलम पाण्डे 1996 से इस कार्य को सहजता के साथ कर रही हैं और अब तक उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई हैं। नीलम बेबाक रूप में स्वीकारती हैं कि- ‘‘वर्तमान परिवेश में शादी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि दस काबिल लड़कियों पर मुश्किल से एक लड़का ढूँढ़ने पर मिलता है।’’ शायद यही कारण है कि तमाम लड़कियों ने अब अयोग्य वरों को शादी के मण्डप से बाहर निकालना आरम्भ कर दिया है। दुल्हन के वेश में सजी-धजी बैठी ये लड़कियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में नहीं चाहती, जो उनको व उनके परिवार को प्रतिष्ठाजनक स्थान न दे सके या दहेज की आड़ में धनलोलुपता का शिकार हो। अब तो कुछ ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं, जहाँ लड़की ने कलयुग में स्वयंवर रचा कर वर चुनने की आजादी ली हो। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के घुमका गाँव में 8 जुलाई 2008 को एक लड़की अन्नपूर्णा ने स्वयंवर द्वारा अपना पति चुना। 8वीं पास 22 वर्षीया अन्नपूर्णा द्वारा स्वयंवर रचा कर वर चुनने की योजना का शुरू में समाज में काफी विरोध हुआ लेकिन समाज की परवाह किए बिना वह अपने रास्ते चलती रही। आखिरकार समाज भी साथ हो गया। स्वयंवर के प्रचार के लिए बाकायदा इलाके में पोस्टर लगाए गए और पास-पड़ोस के गाँवों में डुग्गी और लाउडस्पीकर के जरिए भी लोगों को इसकी जानकारी दी गई थी। स्वयंवर में शामिल होने वाले युवाओं की अधिकतम उम्र 26 साल तय की गई थी। अन्नपूर्णा से विवाह के इच्छुक लोगों को उसके पाँच धार्मिक सवालों का जवाब देना था। हल्बा आदिवासी समुदाय के युवकों को ही इसमें शामिल होने की अनुमति थी। स्वयंवर में केवल तीन युवक ही शामिल हुए। इनमें मात्र 12वीं पास और पेशे से किसान घनाराम नामक व्यक्ति ने स्वयंवर में पूछे सभी पाँच सवालों के सही जवाब दिये और अन्नपूर्णा ने इस व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में चुना।

        वक्त के साथ पुरानी परम्परायें टूटती हैं और नयी परम्परायें स्थापित होती हैं। आंध्रप्रदेश का तिरूपति बालाजी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है और हर दिन यहाँ बेशुमार लोग भगवान बालाजी कोे अपने केश अर्पित करने आते हैं। इनमें अच्छी खासी तादाद महिलाओं की होती है और एक लम्बे समय से मंदिर में महिला मुण्डनकर्मियों को बिठाने की माँग उठती रही है। 31 मार्च 2005 को एक लम्बे संघर्ष बाद नाईनों को यहाँ नियुक्त करने का फैसला किया गया। इसके बाद तो इस निर्णय को भी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर देखा जाने लगा और तर्क दिया गया कि- ‘‘प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी की प्रतिनिधि हैं इसलिए उन्हें मुण्डन कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कृत्य उनकी दरिद्रता को दर्शाता है।’’ पर नाईनों ने हार नहीं मानी और तर्क दिया कि इस कार्य से उन्हें रोजगार मिलेगा और उनकी दरिद्रता व गरीबी दूर हो सकेगी। यही नहीं कर्म के आधार पर पुरूष नाईयों से अपने को कमतर नहीं आंकने वाली इन महिलाओं ने यह भी कहा कि उनसे बाल उतरवाने वाली महिलायें अपने को ज्यादा सहज महसूस कर सकेंगी। समाज की दरियाकनूसी परम्पराओं के चलते जहाँ अभी भी दलितों के घरों में पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठानों हेतु पंडित ढूँढ़े नही मिलते, वहाँ बरेली के भमोरा इलाके की आशा और ज्योति नामक दो बहनें तमाम दलित और मलिन बस्तियों में जाकर अनुष्ठान करती हैं और इस कार्य से मिलने वाले धन को गरीब लड़कियों की शादी, भण्डारा या किसी पीड़ित व्यक्ति की सेवा पर खर्च कर देती हैं।

             राजस्थान सदैव से सामंती समाज माना जाता रहा है पर उस सामंती समाज की विधवाओं ने उन अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों को दुत्कारने का साहस दिखाया है, जहाँ सती प्रथा जैसी बुराईयों के महिमामण्डन के जरिये विधवाओं से जीने का हक तक छीना जाता रहा है। यह वही राजस्थान है जहाँ 1987 में देवराला सती काण्ड के दौरान सती रूपकँवर के चबूतरे पर चूड़ियाँ और सिन्दूर चढ़ाने की स्त्रियों में होड़ सी मची थी। अब उसी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘एकल नारी शक्ति संगठन’ के नेतृत्व में वैधव्य जीवन जी रही हजारों स्त्रियों ने उन साज-श्रंृगारों का इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया है जो विधवा होते ही समाज उनसे छीन लेता है। हाथों में मंेहदी, कलाईयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधानों के साथ ये विधवायें मांगलिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी सहभागिता दर्ज करा रही हैं।


           मुस्लिम समुदाय में जहाँ काजी का काम पुरूष के बूते का ही माना जाता रहा है, एक नारी ने पुरूषों का वर्चस्व तोड़ दिया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा बेगम इस देश की पहली महिला काजी हैं। शबनम के काजी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अपने काजी पिता की सातवीं बेटी शबनम ने पिता के लकवाग्रस्त हो जाने पर निकाह कराने में उनकी मदद करना आरम्भ किया। शरीयत का अच्छी तरह इल्म हो जाने पर पिता जी ने उसे नायब काजी बना दिया। सन् 2003 में पिता जी की मौत के बाद शबनम ने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु काजी बनने का रास्ता चुना और संयोग से काजी के रूप  में उनका पंजीयन भी हो गया। पर काजी बनने के बाद शबनम की असली दिक्कतें आरम्भ हुयीं। अंततः धमकियों और मुकदमों के बीच शबनम अपने को काजी पद के योग्य साबित करने में सफल हुयीं। इसी प्रकार लखनऊ में अगस्त 2008 में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की अध्यक्ष नाइश हसन और दिल्ली के इमरान का निकाह एक महिला काजी डॉ0 सईदा हमीद ने पढ़ाया। गौरतलब है कि डॉ0 सईदा हमीद योजना आयोग की सदस्य भी हैं।


             21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध उन्हीं क्षेत्रों से सामाजिक बदलाव की बयार चली है, जिन्हें इन रूढ़िगत कर्मकाण्डों का गढ़ माना जाता रहा है। इस सामाजिक बदलाव का कारण जहाँ महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी-सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं। ऐसे तर्कों को वे पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच मात्र मानती है। उनके लिये सवाल अब परम्पराओं का ही नहीं वरन् उनके कसौटी पर खरे उतरने का भी है। मात्र किसी धार्मिक गं्रथ के उद्धरणों के आधार पर नारी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता। अब ये महिलायें पूछने लगी हैं कि पुण्य के कामों के समय हाथ पर बाँधा जाने वाला कलावा लड़कों के दायें और लड़कियों के बायें हाथ पर क्यों बाँधा जाता है, क्यों नहीं दोनों के एक ही हाथ पर बाँध दिया जाता है? यदि पूजा-पाठ या पुण्य के कार्य कराने के लिए जनेऊ धारण करना शास्त्रों में जरूरी माना गया है तो पुरोहित का कार्य करने वाली महिला जनेऊ क्यों नहीं धारण कर सकती? योग्यता चाहे वह पुरूष की हो अथवा महिला की- बराबर ही कही जायेगी। जहाँ प्रकृति पुरूष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है। यह निर्णय करने का समय आ चुका है कि अज्ञानी एवं अल्पज्ञानी पुरूषों के भरोसे धर्म की सनातन परम्परा और उसके आचार-विचार सुरक्षित रहेंगे या शिक्षित-प्रशिक्षित नारियों के हाथ में उसकी पताका महफूज रहेगी? प्रख्यात ज्योतिषी के0ए0दुबे पद्मेश जैसे विद्वान भी इन छात्राओं के कदम से उत्साहित दिखते हैं और इससे प्रेरित होकर अपना उत्तराधिकारी किसी नारी को ही बनाना चाहते हैं। यहाँ तक कि भारत में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे दलाई लामा भी आपने उत्तराधिकारी के रूप में महिला की आशा करते हैं। फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर 21वीं सदी के इस दौर में महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं।
             

Friday, 4 March 2011

mahila diwas par khaas

21वीं सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार
  • krishn kumar yadav

 
 भारत में नारी को पूजनीय माना गया है। वैदिक काल से ही नारी विभिन्न रूपों में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करती आ रही है। नारी की सुकोमलता, सौंदर्य, लज्जा व स्नेहिल स्वभाव सदैव से इसके आभूषण रहे हैं पर दुर्भाग्यवश इन्हीं गुणों के कारण उसके साथ बार-बार छल भी हुआ है। समाज की सामन्तवादी सोच ने नारी की आन्तरिकता की उपेक्षा कर उसकी भौतिक काया एवं बाहरी रूप-रंग को ही आधार बनाया । आज जहाँ पुरूष की शुचिता उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर मापी जाती है, वहीं नारी की शुचिता अंग विशेष के आधार पर मापी जाती है।

    प्राचीन काल से ही जहाँ नारी को एक तरफ समाज में प्रतिष्ठा मिली, वहीं दूसरी तरफ वह बर्बरता का शिकार हुयी। तुलसीदास ने तो नारी को ताड़ना का अधिकारी बताकर पशु के समकक्ष खड़ा कर दिया- ‘‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने पत्नी सीता के अग्निपरीक्षा में खरे उतरने के बाद भी एक धोबी के कहने पर धोखे से अपनी पत्नी को घर से निर्वासित कर दिया । सती-प्रथा की आड़ में तमाम नवयुवतियों को मृत पति के साथ चिता में जिन्दा भस्म कर दिया गया । तमाम राजाओं की हैवानियत तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक वे पराजित राजाओं की रानियों को अपने हरम का हिस्सा नहीं बना लेते थे। जौहर-प्रथा इसी का नतीजा थी । यह सब तो बीते युग की बातें हैं, वर्तमान दौर में भी इस तरह की व्यथायें देखी और सुनी जा सकती हैं।  बिहार से मुसहर जाति की एक सांसद को टी0 टी0 ने ट्रेन के वातानुकूलित कोच से परिचय देने के बावजूद इसलिये बाहर निकाल दिया क्योंकि वह वेश-भूषा से वातानुकूलित कोच में बैठने लायक नहीं लगती थीं। याद कीजिये दक्षिण अफ्रीका  में अंग्रेजों द्वारा गाँधी जी को टेªन के प्रथम श्रेणी डिब्बे से बाहर निकालने का दृश्य। राजस्थान में ‘साथिन’ नामक संस्था से जुड़ी भँवरी  देवी ने जन-जागरूकता का बीड़ा उठाया तो हश्र्र बलात्कार के रूप में सामने आया। देवदासी प्रथा के नाम पर कुंवारी  कन्या  को भगवान के दरबार में सौंप देना और तत्पश्चात मन्दिर के पुरोहित द्वारा कन्या के साथ संभोग करना जैसी घटनायें भी  कुछेक देशों में देखी जा सकती हैं। पंचायत संस्थाओं में निम्न वर्ग की महिलाओं को आरक्षण मिलने के साथ ही देश के कई क्षेत्रों में निर्वाचित सरपंचों के साथ बद्सलूकी की घटनायें अखबारों की सुर्खियाँ बनी । मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में हुआ ‘सती काण्ड’ अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है । इक्कीसवीं सदी की ओर उन्मुख राष्ट्र की गर्वोक्ति घोषणाओं के साथ ही अखबारों में नित्य नाबालिगों  के साथ दुष्कर्म की घटनायें छपती रहती हैं। मुम्बई की लोकल टेªन में एक वहशी द्वारा पाँच-छः यात्रियों के सामने एक बालिका से बलात्कार करना और उन यात्रियों का चुप-चाप तमाशा देखना क्या इंगित करता है ? सभ्य समाज का दर्जा पा चुकने के बाद भी घर की महिलाओं से बलात्कार कर बदला चुकाने का पाशविक अंदाज नहीं बदला है। विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र एवम् लोकतन्त्र व सभ्यता के स्वयंभू रक्षक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अपने कार्यालय की एक अदना सी महिला कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ अंतरंग क्षणों का लोभ नहीं छोड़ सके। एक सभ्य समाज की ये असभ्य घटनायें हमें कहाँ लेे जा रही हैं ?

            आधुनिक समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। आाधुनिकता के नाम पर सफलता हेतु शार्टकट रास्ते अपनाना, स्वतन्त्रता के नाम पर उन्मुक्तता का पक्ष- पोषण करना इसकी विशेषतायें बन चुकी हैं । ‘आई डोन्ट केयर’ की संस्कृति फलने-फूलने लगी है। शारीरिक वर्जनायें खत्म होती जा रही हैं । गली- मुहल्लों में तेजी से बढ़ता सौन्दर्य का बाजार, ब्यूटी-क्वीन प्रतियोगिताओं की भरमार, कुछ ही समय में सब कुछ पा लाने की महत्वाकांक्षा, विज्ञापन के नाम पर नारी मॉंडलों के शरीर का प्रदर्शन, फिल्मों और धारावाहिकों में रिश्तों के तेजी से टूटने का प्रचलन एवम् कम होते कपड़े किस आाधुनिकता व स्वतंत्रता के परिचायक हैं?  क्या भारतीय संस्कृति अपनी मूल आस्थाओं को छोड़कर उस पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उन्मुख हो रही है, जहाँ बात-बात में नारी स्वतन्त्रता के नाम पर छाती उधाड़ देना फैशन बन गया है?

        इस संक्रमण काल के बीच 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में एक ऐसा वर्ग उभरा जो अपनी मुक्ति शारीरिक वर्जनाओं को तोड़ने में नहीं अपितु खोखली सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने में देखता है। इनकी शक्लो-सूरत ओर हैसियत पर मत जाईये। ये न तो फेमिनिस्ट के रूप में नारी आन्दोलनों से जुड़ी हैं और न पश्चिमी देशों की उन नारियों की तरह है जो स्वतंत्रता के नाम पर अपनी छाती उघाड़कर प्रदर्शन करती हैं। न ही इनके साथ किसी बड़े घराने या कॉरपोरेट जगत या राजनैतिक दल का नाम जुड़ा हुआ है और न ही ये कोई बड़े-बड़े दावे करती हैं। ये वो महिलायें हैं  जो हमारे पास-पड़ोस की और हमारे बीच की हैं, जिनसे हम न जाने कितने बार रूबरू हुए होंगे पर हमंे उनकी खासियत का पता ही नहीं। एक लम्बे समय से धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के नाम पर इन्हें यही बताया जाता रहा कि फला काम तुम्हारे लिए वर्जित है और यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करोगी तो तुम्हारे ऊपर अपशकुन व ईश्वरीय प्रकोप का खतरा मंडरायेगा। पर ये औरों से अलग हैं क्योंकि वर्जनाओं को तोड़कर एक अलग लीक बनाना ही इनकी खासियत है। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुुक्तता में दिखा। नतीजन, गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन, मॉडल बनने की होड,़ फिल्मों में काम पाने हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों की बढती भीड़ .... पर समाज का यह वर्ग ऐसा है जो अभी भी सिर से पांव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।

    कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस की लड़कियों ने तमाम रूढ़िगत वर्जनाओं और परम्पराओं को बहुत पीछे धकेल कर कुछ नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। कर्मकाण्ड का सबसे प्रमुख तत्व पुरोहिती है और पांडित्य में बनारस का कोई सानी नहीं। प्राचीन काल से ही यहाँ के पंडितों ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई है। प्राचीनकाल में जहाँ लोमशा एवं लोपामुद्रा आदि नारियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, शाश्वती, घोषा, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरूषों को कायल बना रखा था, उसी परम्परा मंे अब पुरूष पुरोहितों की परम्परा को बनारस की लड़कियों ने तोड़ दिया है। तुलसीपुर स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण कई लड़कियाँ अब लोगों के विवाह करवा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। महाविद्यालय की आचार्या नंदिता शास्त्री बड़े गर्व से बताती हैं कि विवाह कराने के लिये उनकी छात्राओं को बनारस ही नहीं वरन् दूर-दूर से लोग आमंत्रित कर रहे हैं। हैदराबाद में बसी यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी को वैदिक रीति से विवाह कराने के लिए अमेरिका तक से आमंत्रण आ चुके हैं। जब इन छात्राओं ने आरम्भ में यह कार्य आरम्भ किया तो इनका विरोध करने के लिए परम्परागत पंडितांे ने वर व कन्या पक्ष को शास्त्रों से उद्धरण देकर काफी भड़काया पर अब वही पंडित इन लड़कियों का लोहा मानने लगे हैं। कारण- मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, उसकी सम्यक व्याख्या और वैवाहिक संस्कार की सभी रस्मों का पालन करवाने में लड़कियाँ परम्परागत पंडितों से कहीं आगे हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे पंडित विवाहों में शुद्ध मंत्र का उच्चारण तक नहीं कर पाते। अब ये छात्रायंे विवाह ही नहीं शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हैं। ऐसा नहीं है कि यह क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ बनारस तक ही सीमित है वरन् देश के अन्य भागों में भी इस बदलाव को महसूस किया जाने लगा है। औद्योगिक महानगर कानपुर में कानपुर विद्या मंदिर डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं। उन्होंने जब छात्राओं को सार्वजनिक रूप से वेद पाठ आरम्भ कराया तो व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा। यहाँ तक कि एक शंकराचार्य ने इसे वेद विरूद्ध तक घोषित कर दिया। पर आशारानी ने हार नहीं मानी और नतीजन आज उनकी तमाम छात्रायें कर्मकाण्ड कराने लगी हैं। हरिद्वार में कनखल स्थिति माँ योग शक्ति धाम की अधिष्ठाता माँ योग शक्ति ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल की साध्वी माँ ज्योतिषानन्दन को जगद्गुरू शंकराचार्य के समकक्ष पार्वत्याचार्य  की उपाधि से अलंकृत किया तो गुस्साये साधु सन्तों ने किसी महिला को यह उपाधि देने के विरोध में जमकर हंगामा किया। 

           सिर्फ घरेलू कर्मकाण्डों तक ही क्यों, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई। इस दिशा में सुनीति गाडगिल ने अलख जगाई जिन्होंने विवाह, पूजा, यज्ञ आदि करवाने में ही भूमिका नहीं निभाई वरन् श्राद्ध कर्म भी करवाकर मिसाल कायम की। बनारस के ही पाण्डेयपुर क्षेत्र की निवासी तनू उर्फ वन्दना जायसवाल, मंडुवाडीह की लक्ष्मीणा देवी, नगर निगम के सफाईकर्मी रहे गोलगड्ढा निवासी मुन्ना की विधवा बीदा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डॉ0 अलका मुखर्जी ने परिवार में किसी अन्य पुरूष सदस्य के न रहने पर अपनी माँ, पिता और पति का अंतिम संस्कार धार्मिक क्रियाओं के बीच विधिवत सम्पन्न किया। वन्दना जायसवाल ने घंट इत्यादि बाँधकर नित्य घाट पर अपनी माँ का तर्पण भी किया। अब तो इस सामाजिक बदलाव की बयार का असर देश के अन्य भागों में भी दिखाई पड़ने लगा। तभी तो कानपुर की डॉ0 आशारानी राय महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने से नहीं हिचकतीं। अपने पिता और श्वसुर का अंतिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने ही सम्पन्न किया। यही नहीं कुछेक समय पहले तक प्रयाग के रसूलाबाद घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक 72 वर्षीया विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया तथा अंतिम संस्कार के लिये चिता को मुखाग्नि दी और पिण्डदान किया। परिवार में बेटों के न होने पर लोगों ने बड़े दामाद से मुखाग्नि दिलवाने का प्रयास किया पर सातों बेटियों ने कहा कि- ‘‘उनकी माँ ने बेटा न पैदा होने पर बेटियों को ही बेटों की तरह पाला तथा किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी।’’ हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमी देवी ने तो अपने पति की अर्थी को बेटों को कन्धा तक नहीं लगाने दिया और अर्थी को कंधा देने की जिद करने पर उन्हें धक्के मारकर घर से निकाल दिया। उसने कहा कि मेरे पति के जिन्दा होने पर इन बेटों ने कभी हमारी सेवा नहीं की और न ही रोजमर्रा के खर्च के लिये कोई इन्तजाम किया और ऐसे में पति का निर्देश था कि- ‘‘इन अवारा कलयुगी बेटों को मेरी अर्थी में कंधा न लगाने दिया जाये।’’ अंततः अर्थी को दोनों बहुओं व पड़ोस की दो अन्य औरतों ने कंधा दिया और मुखाग्नि उसके चार पोतों ने दी। इसी प्रकार गोरखपुर स्थित सहजनवां के दीनदयाल उपाध्याय महिला विद्यालय में स्नातक की विकलांग छात्रा बुधवन्त सिंह ने अपने पिता की अर्थी को अपने हाथों से सजाया और कंधा देने वालों के अभाव में ठेले पर रखकर श्मशान घाट ले जाकर विधिवत मुखाग्नि देकर अपना कर्तव्य निभाया। बाँदा में निर्मला गर्ग नामक महिला ने पुत्र के होते हुए भी अपने पति की चिता को आग दी तो शाँहजहापुर में पेशे से इंजीनियर शिप्रा नामक लड़की ने सगाई के अगले ही दिन दिवंगत हुए अपने पिता की अर्थी को न केवल मेंहदी रचे हाथों से कांधों पर धरा बल्कि उन्हें मुखाग्नि देकर रूढ़ियों को भी ललकारा। धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो अंतिम संस्कार कोई भी सम्पन्न करा सकता है किन्तु अदृश्य की उत्पत्ति का अधिकार शास्त्रों में पुत्र और पौत्र के अलावा राजा व ब्राह्मण को ही होता है। भले ही धर्म के पुरोधा मानंे कि शवदाह के बाद का काम ब्राह्मण ही करेगा वरना आत्मा भटकेगी और अगले जन्म में शरीर का अंग-प्रत्यंग भी ठीक-ठाक नहीं होगा पर इन महिलाओं की मानें तो यह पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच है जो सारे पुण्य अकेले ही लूटना चाहता है। हिमाचल प्रदेश की घटना समाज के सामने यह भी सवाल खड़ा करती है कि अपने माँ-बाप की देखरेख न करने वाले बेटों को धार्मिक मान्यताओं के नाम पर माँ-बाप की अर्थी में कंधा देने का क्या नैतिक अधिकार है? निश्चिततः उस निरक्षर दलित महिला ने इसी बहाने माँ-बाप के प्रति संतानों को दायित्व बोध का पाठ भी पढ़ाया। 

           याद कीजिये ‘बीबी हो तो ऐसी’ फिल्म में नायिका रेखा का घोड़ी पर सवार होकर दूल्हे के द्वार बारात ले जाना। इस फिल्मी कथानक को भी लड़कियों ने हकीकत में बदल दिया। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई यानी भोलेनाथ की नगरी में गंगा एक बार फिर उल्टी बही। इस सब के पीछे कश्यप फिल्म एण्ड टेलीविजन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक डा0 डी0एल0कश्यप की प्रमुख भूमिका रही, जिन्होंने अपने तीन बेटों और दो बेटियों के हाथ बनारस के घमहापुर गाँव में एक साथ एक ही मण्डप में पीले किये। अभी तक दहेजलोलुप दूल्हों को लड़कियों द्वारा विवाह मण्डप से बाहर निकालने या शराबी दूल्हे के साथ विवाह करने से इन्कार करने जैसे उदाहरण ही सामने आये हैं पर परम्पराओं को दरकिनार करते हुए डा0 कश्यप के तीनों बेटों से विवाह करने उनकी दुल्हनें घोड़ी पर सवार होकर मय बारात उनके दरवाजे आयीं जहाँ दूल्हे के पिता ने बहुओं की आगवानी की तथा उन्हें घोड़ी से उतारकर उनका पाँव पूजा। जबकि परम्परा है कि लड़की का पिता दूल्हे का पाँव पूजता है। प्रतीकात्मक द्वारपूजा के बाद दुल्हनों को मंच पर महाराजा कुर्सी पर बिठाया गया और फिर दूल्हे राजा मंच पर आये। लड़की वालों की ओर से निभाये जाने वाले सभी रस्मोरिवाज लड़कों के पिता ने पूरे किये। इस विवाह में न तो कोई मंत्र पढ़ा गया और न ही सात फेरों के साथ कसमें खायी गयीं, अपितु सिर्फ जयमाल व सिन्दूरदान हुआ। इसी प्रकार जयपुर में कानून की छात्रा रही दो जुड़वा बहनें अपनी शादी के अवसर पर निकाली जानेवाली ‘बिन्दौरी’ में घोड़ी पर सवार होकर निकलीं। उनका मानना था कि- ‘‘यह क्रांतिकारी कदम दर्शाता है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं है।’’ उ0प्र0 के जौनपुर में जब शादी पश्चात एक लम्बे समय तक पति अपनी विवाहिता को लेने नहीं पहुँचे तो कुछेक लड़कियाँ खुद ही बारात (गौना) लेकर पतियों के दरवाजे पहुँच गयीं। यही नहीं आधी आबादी की प्रतीक नारियों ने अब अनचाहे दूल्हों को दरवाजे से लौटाना भी आरम्भ कर दिया है। गाय की बछिया समझकर किसी के भी हाथ में पगहा पकड़ा देने वाले माता-पिता की पगड़ी की लाज की खातिर, सामाजिक संस्कारों के बोझ तले दबकर अपना भविष्य बर्बाद करने की बजाय तमाम लड़कियों ने दहेज लोभी, शराबी, उम्रदराज इत्यादि जैसे दूल्हों को निडरता से दरवाजे से लौटाने में संकोच नहीं किया। 


        सामान्यतः शादी योग्य लड़कियांे के लिये लड़के ढूँढ़ने का काम पुरूष वर्ग का माना जाता रहा है पर लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाली नीलम पाण्डे 1996 से इस कार्य को सहजता के साथ कर रही हैं और अब तक उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई हैं। नीलम बेबाक रूप में स्वीकारती हैं कि- ‘‘वर्तमान परिवेश में शादी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि दस काबिल लड़कियों पर मुश्किल से एक लड़का ढूँढ़ने पर मिलता है।’’ शायद यही कारण है कि तमाम लड़कियों ने अब अयोग्य वरों को शादी के मण्डप से बाहर निकालना आरम्भ कर दिया है। दुल्हन के वेश में सजी-धजी बैठी ये लड़कियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में नहीं चाहती, जो उनको व उनके परिवार को प्रतिष्ठाजनक स्थान न दे सके या दहेज की आड़ में धनलोलुपता का शिकार हो। अब तो कुछ ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं, जहाँ लड़की ने कलयुग में स्वयंवर रचा कर वर चुनने की आजादी ली हो। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के घुमका गाँव में 8 जुलाई 2008 को एक लड़की अन्नपूर्णा ने स्वयंवर द्वारा अपना पति चुना। 8वीं पास 22 वर्षीया अन्नपूर्णा द्वारा स्वयंवर रचा कर वर चुनने की योजना का शुरू में समाज में काफी विरोध हुआ लेकिन समाज की परवाह किए बिना वह अपने रास्ते चलती रही। आखिरकार समाज भी साथ हो गया। स्वयंवर के प्रचार के लिए बाकायदा इलाके में पोस्टर लगाए गए और पास-पड़ोस के गाँवों में डुग्गी और लाउडस्पीकर के जरिए भी लोगों को इसकी जानकारी दी गई थी। स्वयंवर में शामिल होने वाले युवाओं की अधिकतम उम्र 26 साल तय की गई थी। अन्नपूर्णा से विवाह के इच्छुक लोगों को उसके पाँच धार्मिक सवालों का जवाब देना था। हल्बा आदिवासी समुदाय के युवकों को ही इसमें शामिल होने की अनुमति थी। स्वयंवर में केवल तीन युवक ही शामिल हुए। इनमें मात्र 12वीं पास और पेशे से किसान घनाराम नामक व्यक्ति ने स्वयंवर में पूछे सभी पाँच सवालों के सही जवाब दिये और अन्नपूर्णा ने इस व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में चुना।

        वक्त के साथ पुरानी परम्परायें टूटती हैं और नयी परम्परायें स्थापित होती हैं। आंध्रप्रदेश का तिरूपति बालाजी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है और हर दिन यहाँ बेशुमार लोग भगवान बालाजी कोे अपने केश अर्पित करने आते हैं। इनमें अच्छी खासी तादाद महिलाओं की होती है और एक लम्बे समय से मंदिर में महिला मुण्डनकर्मियों को बिठाने की माँग उठती रही है। 31 मार्च 2005 को एक लम्बे संघर्ष बाद नाईनों को यहाँ नियुक्त करने का फैसला किया गया। इसके बाद तो इस निर्णय को भी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर देखा जाने लगा और तर्क दिया गया कि- ‘‘प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी की प्रतिनिधि हैं इसलिए उन्हें मुण्डन कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कृत्य उनकी दरिद्रता को दर्शाता है।’’ पर नाईनों ने हार नहीं मानी और तर्क दिया कि इस कार्य से उन्हें रोजगार मिलेगा और उनकी दरिद्रता व गरीबी दूर हो सकेगी। यही नहीं कर्म के आधार पर पुरूष नाईयों से अपने को कमतर नहीं आंकने वाली इन महिलाओं ने यह भी कहा कि उनसे बाल उतरवाने वाली महिलायें अपने को ज्यादा सहज महसूस कर सकेंगी। समाज की दरियाकनूसी परम्पराओं के चलते जहाँ अभी भी दलितों के घरों में पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठानों हेतु पंडित ढूँढ़े नही मिलते, वहाँ बरेली के भमोरा इलाके की आशा और ज्योति नामक दो बहनें तमाम दलित और मलिन बस्तियों में जाकर अनुष्ठान करती हैं और इस कार्य से मिलने वाले धन को गरीब लड़कियों की शादी, भण्डारा या किसी पीड़ित व्यक्ति की सेवा पर खर्च कर देती हैं।

             राजस्थान सदैव से सामंती समाज माना जाता रहा है पर उस सामंती समाज की विधवाओं ने उन अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों को दुत्कारने का साहस दिखाया है, जहाँ सती प्रथा जैसी बुराईयों के महिमामण्डन के जरिये विधवाओं से जीने का हक तक छीना जाता रहा है। यह वही राजस्थान है जहाँ 1987 में देवराला सती काण्ड के दौरान सती रूपकँवर के चबूतरे पर चूड़ियाँ और सिन्दूर चढ़ाने की स्त्रियों में होड़ सी मची थी। अब उसी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘एकल नारी शक्ति संगठन’ के नेतृत्व में वैधव्य जीवन जी रही हजारों स्त्रियों ने उन साज-श्रंृगारों का इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया है जो विधवा होते ही समाज उनसे छीन लेता है। हाथों में मंेहदी, कलाईयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधानों के साथ ये विधवायें मांगलिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी सहभागिता दर्ज करा रही हैं।


           मुस्लिम समुदाय में जहाँ काजी का काम पुरूष के बूते का ही माना जाता रहा है, एक नारी ने पुरूषों का वर्चस्व तोड़ दिया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा बेगम इस देश की पहली महिला काजी हैं। शबनम के काजी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अपने काजी पिता की सातवीं बेटी शबनम ने पिता के लकवाग्रस्त हो जाने पर निकाह कराने में उनकी मदद करना आरम्भ किया। शरीयत का अच्छी तरह इल्म हो जाने पर पिता जी ने उसे नायब काजी बना दिया। सन् 2003 में पिता जी की मौत के बाद शबनम ने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु काजी बनने का रास्ता चुना और संयोग से काजी के रूप  में उनका पंजीयन भी हो गया। पर काजी बनने के बाद शबनम की असली दिक्कतें आरम्भ हुयीं। अंततः धमकियों और मुकदमों के बीच शबनम अपने को काजी पद के योग्य साबित करने में सफल हुयीं। इसी प्रकार लखनऊ में अगस्त 2008 में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की अध्यक्ष नाइश हसन और दिल्ली के इमरान का निकाह एक महिला काजी डॉ0 सईदा हमीद ने पढ़ाया। गौरतलब है कि डॉ0 सईदा हमीद योजना आयोग की सदस्य भी हैं।


             21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध उन्हीं क्षेत्रों से सामाजिक बदलाव की बयार चली है, जिन्हें इन रूढ़िगत कर्मकाण्डों का गढ़ माना जाता रहा है। इस सामाजिक बदलाव का कारण जहाँ महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी-सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं। ऐसे तर्कों को वे पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच मात्र मानती है। उनके लिये सवाल अब परम्पराओं का ही नहीं वरन् उनके कसौटी पर खरे उतरने का भी है। मात्र किसी धार्मिक गं्रथ के उद्धरणों के आधार पर नारी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता। अब ये महिलायें पूछने लगी हैं कि पुण्य के कामों के समय हाथ पर बाँधा जाने वाला कलावा लड़कों के दायें और लड़कियों के बायें हाथ पर क्यों बाँधा जाता है, क्यों नहीं दोनों के एक ही हाथ पर बाँध दिया जाता है? यदि पूजा-पाठ या पुण्य के कार्य कराने के लिए जनेऊ धारण करना शास्त्रों में जरूरी माना गया है तो पुरोहित का कार्य करने वाली महिला जनेऊ क्यों नहीं धारण कर सकती? योग्यता चाहे वह पुरूष की हो अथवा महिला की- बराबर ही कही जायेगी। जहाँ प्रकृति पुरूष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है। यह निर्णय करने का समय आ चुका है कि अज्ञानी एवं अल्पज्ञानी पुरूषों के भरोसे धर्म की सनातन परम्परा और उसके आचार-विचार सुरक्षित रहेंगे या शिक्षित-प्रशिक्षित नारियों के हाथ में उसकी पताका महफूज रहेगी? प्रख्यात ज्योतिषी के0ए0दुबे पद्मेश जैसे विद्वान भी इन छात्राओं के कदम से उत्साहित दिखते हैं और इससे प्रेरित होकर अपना उत्तराधिकारी किसी नारी को ही बनाना चाहते हैं। यहाँ तक कि भारत में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे दलाई लामा भी आपने उत्तराधिकारी के रूप में महिला की आशा करते हैं। फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर 21वीं सदी के इस दौर में महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं।

Saturday, 19 February 2011

samman

अक्षिता यादव बनी वर्ष 2010 की श्रेष्ठ नन्हीं ब्लॉगर

  • एम. अफसर खां सागर 




        प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं, बशर्तें उसे अनुकूल वातावरण मिले। ऐसे ही वातावरण में पली-बसी अक्षिता (पाखी) को वर्ष 2010 की श्रेष्ठ नन्हीं ब्लॉगर का खिताब मिला है। अक्षिता का “पाखी की दुनिया” नाम से ब्लॉग है। ब्लॉगोत्सव-2010 के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने अक्षिता के लिए लिखा कि-”एक ऐसी नन्हीं ब्लॉगर जिसके तेवर किसी परिपक्व ब्लॉगर से कम नहींकृकृजिसकी मासूमियत में छिपा है एक समृद्ध रचना संसारकृजो अपने मस्तिष्क की आग को बड़ी होकर पूरी दुनिया के हृदय तक पहुँचाना चाहती है।” यही नहीं उन्होंने अक्षिता को ब्लॉगोत्सव का सुपर स्टार बताते हुए लिखा कि-”अक्षिता (पाखी) हिंदी ब्लॉग जगत की एक ऐसी मासूम चिट्ठाकारा, जिसकी कविताओं और रेखाचित्र से ब्लॉगोत्सव की शुरुआत हुयी और सच्चाई यह है कि उसकी रचनाओं की प्रषंसा हिंदी के कई महत्वपूर्ण चिट्ठाकारों से कहीं ज्यादा हुयी। यदि अक्षिता को ब्लॉगोत्सव का सुपर स्टार कहा जाए तो शायद न कोई अतिष्योक्ति होगी और न शक की गुंजाईष ही। इसीलिए लोकसंघर्ष-परिकल्पना द्वारा आयोजित ब्लॉगोत्सव-2010 में प्रकाषित रचनाओं की श्रेष्ठता के आधार पर ब्लॉगोत्सव की टीम ने अक्षिता (पाखी) को वर्ष की श्रेष्ठ नन्हीं ब्लॉगर के रूप में सम्मानित करने का निर्णय लिया है।”

            25 मार्च 2007 को कानपुर में जन्मीं अक्षिता वर्तमान में कार्मेल स्कूल, पोर्टब्लेयर में नर्सरी में पढ़ती हैं। अक्षिता के पिता कृष्ण कुमार यादव अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएं पद पर पदस्थ हैं व मम्मी आकांक्षा यादव उ0प्र0 के एक कॉलेज में प्रवक्ता हैं। दोनों ही जन चर्चित साहित्यकार व सक्रिय ब्लॉगर भी हैं। अक्षिता की रुचियाँ हैं- प्लेयिंग, डांसिंग, ड्राइंग, ट्रेवलिंग, ब्लॉगिंग। अक्षिता को ड्राइंग बनाना बहुत अच्छा लगता है। पहले तो हर माँ-बाप की तरह उनके मम्मी-पापा ने भी ध्यान नहीं दिया, पर धीरे-धीरे उन्होंने अक्षिता के बनाए चित्रों को सहेजना आरंभ कर दिया। इसी क्रम में इन चित्रों और अक्षिता की गतिविधियों को ब्लॉग के माध्यम से  भी लोगों के सामने प्रस्तुत करने का विचार आया और 24 जून 2009 को “पाखी की दुनिया” (ीजजचरूध्ध्ूूूण्चंाीप.ंोीपजंण्इसवहेचवजण्बवउध्) नाम से अक्षिता का ब्लॉग अस्तित्व में आया। एक साल के भीतर ही करीब 14,000 हिन्दी ब्लॉगों में इस ब्लॉग की रेंिटंग बढ़ती गई और फिलहाल यह टॉप 150 हिन्दी ब्लॉगों में शामिल है। इस ब्लॉग का संचालन अक्षिता के मम्मी-पापा द्वारा किया जाता है। ‘पाखी की दुनिया‘ ब्लॉग के माध्यम से अक्षिता (पाखी) की सष्जनात्मकता को भी पंख लग गए और लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया। राजस्थान के चर्चित बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा अक्षिता की मासूम प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि अपनी पुस्तक ‘चूं- चूं‘ के कवर-पेज पर अक्षिता की फोटो ही लगा दी। सरस-पायस के संपादक रावेन्द्र कुमार ‘रवि‘ ने अक्षिता की ड्राइंग को लेकर पूरा बाल-गीत ही रच डाला तो तमाम ब्लॉग्स पर अक्षिता की चर्चा होने लगी। हिन्दी ब्लॉग जगत के सर्वाधिक सक्रिय ब्लॉगर समीर लाल ने कनाडा से ‘पाखी की दुनिया‘ के लिए सुन्दर-सुन्दर कविताएं भी रचीं। कृष्ण कुमार यादव-आकांक्षा यादव-अक्षिता को गौरव प्राप्त है कि एक ही परिवार के सभी सदस्य ब्लॉग-जगत में बखूबी सक्रिय हैं।

           कहते हैं बचपन की दुनिया बेहद मासूम, निश्छल, रचनात्मक व अनूठी होती है। बस जरुरत है बच्चों को स्पेस देने की। उनकी बातों या बनाये गए चित्रों को यूँ ही हवा में नहीं मानें, उनमें भी कुछ न कुछ छुपा है। यह उनके लिए सिर्फ मनोरंजन का ही परिचायक नहीं बल्कि इसके माध्यम से कोमल मन जीवन के रंगों और उसमें व्याप्त आनंद की भी खोज करता है। 21वीं सदी टेक्नॉलाजी की है। टेक्नॉलाजी की बदौलत ही संचार एवं सूचना क्रांति का व्यापक विस्तार हो रहा है। आज बच्चा कलम बाद में पकड़ता है, मोबाइल, टेलीवीजिन कम्प्यूटर व लैपटॉप पर हाथ पहले से ही फिराने लगता है। सर्वसुलभ सुविधाओं, नगरीकरण, विज्ञान के नये प्रयोगों व टेक्नोलॉजी के बढ़ते इस्तेमाल, शिक्षा और ज्ञान के बाजार में नये-नये फार्मूले इत्यादि के चलते बच्चे कम उम्र में ही अनुभव और अभिरूचियों के विस्तष्त संसार से परिचित हो जाते हैं। नयी-नयी बातों को सीखने की ललक और नये एडवेन्चर उन्हें दिनों-ब-दिन एडवांस बना रहे हैैं। उनकी दृष्टि प्रश्नात्मक है तो हृदय उद्गारात्मक। कभी अज्ञेय ने बच्चों की दुनिया के बारे में कहा था कि-‘‘भले ही बच्चा दुनिया का सर्वाधिक सम्वेदनशील यंत्र नहीं है पर वह चेतनशील प्राणी है और अपने परिवेश का समर्थ सर्जक भी। वह स्वयं स्वतन्त्र चेता है, क्रियाशील है एवं अपनी अंतःप्रेरणा से कार्य करने  वाला है, जो कि अधिक स्थायी होता है। ऐसे में अक्षिता (पाखी) को सर्वश्रेष्ठ नन्हीें ब्लॉगर का खिताब मिलना यह दर्शाता है कि बच्चों में आरंभ से ही सृजनात्मक-शक्ति निहित होती है। उसे इग्नोर करना या बड़ों से तुलना करने की बजाय यदि उसे बाल-मन के धरातल पर देखा जाय तो उसे पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है। इस अवसर पर ऋग्वेद की दो पंक्तियांँ अक्षिता को समर्पित हैं-       
    ‘‘आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः।
      हृदाष्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमें।।’’
     अर्थात आपके मार्ग प्रषस्त हों, उस पर पुष्प हों, नये कोमल दूब हों, आपके उद्यम, आपके प्रयास सफल हों, सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिलंे। अक्षिता (पाखी) को उनके सृजनात्मक एवं मंगलमयी जीवन के लिए अनंत शुभकामनाएं।                   

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